पेड़, छाया और घर
-अरुण कुमार सिंह
पेड़ भीतर रहने लगा था। मेरी जड़ें निकलने लगी थी। छाया बड़ी हो रही थी। दादा ने देखा और पकड़ लिया। तुम्हारी जड़ें निकलने लगी हैं। हाँ। अब तुम एक जगह मत रहो। पेड़ तो एक जगह रहता है। चलने के लिए तुम्हारे भीतर रहने लगा है। मैं कोनो और दरारों का फोटो लेता था। बहुत प्रसिद्ध था। ऐसा सब कहते थे। मेरे कोनों और दरारों की फोटो को सब हाथों हाथ खरीदते थे। उस दिन लेकिन एक बच्ची आई। बहुत देर उस पेड़ को देखती रही जो कोने में कोंपल के रूप में फूटा था।
आप पूरा घर नहीं देख पाते होंगे? मतलब? जब कोनो पर ध्यान देते हैं तो घर तो आँखों से छूट जाता होगा। हंसी। हम दोनों। वो सामने। कोने के पड़ोस में। भीतर जैसे तूफान। पेड़ हिलने लगा। मेरी छाया हिली। मैंने देखा। दादा ने देखा। बच्ची ने देखा। और वो चली गयी। सब कुछ बदल गया। ऐसा कि जड़ें गहरी थी पर सतह पर दिखने लगी। बाहर होने के कारण सफ़ेद सी। पस से भरी। जबकि छाया हरी थी। क्या मैं सच में पूरा घर नहीं देख पाता हूँ। एक्सिबिशन बंद कर दिया। दादा डांटते रहे। ये बेवकूफी है। मैं सिर हिलाता रहा। पूरा घर देखना था। घरों के फोटो खींचना शुरू कर दिया। मेरी आँखों में पूरा घर समा ही नहीं पाता। दादा से कहूँगा तो हँस देंगे। पर वो बच्ची...
बहुत दूर एक जंगल में पेड़ मिलकर घर बनाते हैं। ज़िंदा। वहाँ का रास्ता कबीले वालों से पूछा। कबीला। चार घर का। 18 लोग। 5 बच्चे। 8 जवान। 5 बूढ़े। तीन पीढ़ी। और फिर मैं। उन्नीसवाँ। कितने दिन हो गए यहाँ? अभी तक रास्ता नहीं बताया है। मुझे उनकी भाषा नहीं आती। गाइड ने बस यहाँ तक लाकर छोड़ा। वो साथ रहना चाहता था। मैंने मना कर दिया। आप अकेले कैसे रह पाएंगे? मैं रह लूँगा। जिद। देखकर वो चला गया। बोला पंद्रह दिन में वापस आऊँगा। हाँ ठीक है। अभी सातवाँ दिन है। मैं भाषा अब भी नहीं समझ पाता हूँ पर भाषा सिर्फ शब्द नहीं। उनके साथ जाता हूँ खाना इकट्ठा करने। बीच में एक दिन एक बूढ़ा बहुत बीमार। पर वो उसका उत्सव मनाने लगे। नाचे। मैंने नाच सीखा। बच्ची अगर देखती तो क्या कहती?
इस कबीले में क्यूँ? यहाँ घरों में कोने नहीं हैं। आदत से मजबूर जैसे कि भीतर कुढ़न हो। कोने का फोटो लेने के लिए तत्पर। पर है ही नहीं? बहुत बार आँखों के भीतर उनके छोटे से घर को कैद करने की कोशिश। हार। कुछ छूट जाता है। शाम। ऐसी ही उलझन में मैं बैठा दो बच्चों को एक जंगली खरगोश से खेलते देख रहा था। जो बीमार थे वो मेरे पास थके कदमों से आकर बैठ गए। कुछ कहा... मैं मुस्कुरा दिया। उनकी झुर्रियों भरा हाथ मेरे बालों में कुछ खोजने लगा। रोने का मन। आँसू। उन्होने इशारे किया। बच्चों की आँखें। मैंने घर का इशारा किया। वो हँस पड़े। मेरे हाथ पर एक आकृति बना दी। अदृश्य आकृति। भीतर तूफान का मध्य सा मिला। मैं उनसे पूछना चाहता था... पर वो रात को नहीं रहे।
सुबह हम सब नहाकर उन्हें लेकर जंगल में गए। एक पेड़। पुराना। बहुत पुराना। समय जितना पुराना। उसकी छाया में उन्होने बूढ़े को बिठाया। उनकी बंद आँखें खोल दी। लगा वो अभी भी ज़िंदा हैं। मैं डर सा गया। उन्होने पेड़ की छाल से रिसते गोंद से पीना का कुछ बनाया। हम सबने पिया। मेरा सिर घूमने लगा। मैं बूढ़े की आँखों से बाकी सब को देख रहा था। वो सब बूढ़े की आँखों से मुझे देख रहे थे। बूढ़ा हम सब के अंदर था। जादू। अंधेरा।
जब जागा तो दोपहर थी। घर की छाया बड़ी थी और मेरी छाया का कहीं कोई निशान नहीं था। मैंने कदम बाहर रखा। गिर पड़ा। दो बच्चे आए। और मुझे वापस बिस्तर पर बैठा दिया। फिर खाने को देने लगे। सालों की भूख। ऐसी भूख जो रह रहकर पूरे शरीर में फैल रही थी। भूख मैं। मैं भूख। अंतर नहीं है। मेरी छाया कहाँ है? मैंने बच्चों की छाया की तरफ इशारा किया।
फू...
उन्होने कहा। फू... मैंने दोहराया। इमला जैसे। छोटा सा था तो आचार्य जी इमला बोलते थे। मैं हार जाता था। वो फिर उंगली के इशारे से मुझे तेज लिखने के लिए बोलते। मैं धीमे लिखता। वो आगे बढ़ जाते। मैं उनके बोले गए शब्दों की छाया बटोरता। आज मैं बड़ा हूँ। इमला अब भी नहीं लिख पाता। बच्चे अपने शब्द से आगे बढ़ गए थे। मैं अभी भी उसकी छाया में बैठा था। कोने कहाँ है? मैंने अपनी भाषा में पूछा। बच्चे हँसे। मैं कहानी सुनाना चाहता था। पर उन्होने कभी पूछा नहीं। बिना पूछे कुछ भी सुनाने से मैं शरमाता था। लगता मैं झूठ बोल रहा हूँ। जबकि इस समय मैं अपने होने की कहानी कहना चाहता था। उस बच्ची की आँखों और उस कोने के फोटो के बारे में बताना चाहता था। पर भाषा...
रात थी। सब सो रहे थे। मुझे लगा मुझे भीतर जाना चाहिए। मैं गया। उस पेड़ की तरफ जहां हमने बूढ़े को छोड़ा था। वो अभी भी वहीं थे। आँख खोले। बचपन में अंधेरे में पेड़ की छाया के नीचे बैठे बूढ़े से बचने को कहा गया था। माँ को बताऊंगा तो वो डरेंगी। ऊपर से मरा हुआ बूढ़ा। मरना किसे कहते हैं? मैं उनके सामने बैठ गया। जैसे कि वो गुरु और मैं शिष्य। बहुत कोशिश की। उनकी आँखों से देख सकूँ लेकिन नहीं हुआ। रात की रोशनी में पेड़ से निकलने वाला गोंद चमक रहा था। मेरी जीभ गोंद पर गयी। जलन। जैसे भूख फिर जाग गयी। बूढ़ा भी।
आप...
मैं...
अब मैं उनकी भाषा बोल रहा था। या वो मेरी भाषा बोल रहे थे। या फिर ये एक भ्रम था। मैंने उनकी झुर्रियों को छूने की कोशिश की। सफल कोशिश।
मैं हूँ...
पर कल तो...
तुम्हें कैसे पता कल?
समय का कुछ तो...
तुम समय को समझते हो?
पता नहीं। वो हँस पड़े।
भूख लगी है?
हाँ।
ये लो।
उन्होने पेड़ की छाया के भीतर से सफ़ेद फूल इकट्ठा कर दिये। खाये। मेरे भीतर के पेड़ की डकार आई।
पेट भरा?
हाँ।
तुम्हारा नहीं।
तो फिर?
पेड़ का।
आपको पेड़ दिखता है?
शुरुआत से। कमजोर है।
तभी मैं चलता रहता हूँ।
4 दिन बाद गाइड आ जाएगा। तुम्हें जाना होगा।
मुझे सवाल का जवाब नहीं मिला है।
सवाल क्या है?
मैंने कहने की कोशिश की... खाली हवा के सिवा कुछ नहीं निकला। जैसे कि मेरे पास सवाल को कहने के... सोचने तक के लिए कोई भाषा नहीं थी।
तुम सवाल देखना चाहते हो।
जवाब। मैं चुप था। बहुत चुप। मेरे मुँह से लगातार कुछ फूट रहा था। वो सुन रहे थे। मैंने उनसे पूरी कहानी कही। दादा के होने की बात। बच्ची की आँखें। कोने। घर। वो चुप सुनते रहे।
आप ज़िंदा हैं?
तुम बताओ!
मैं ज़िम्मेदारी नहीं सह पाता। जवाब देना ज़िम्मेदारी है। सवाल ज़िम्मेदारी हैं।
तो उतार दो।
कैसे? अपनी छाया को कैसे उतार सकते हैं?
उन्होने फिर एक बार अपने हाथ मेरे बालों पर फेर दिये। बोले फू...
ये क्या है? जादू...
जादू क्या है?
मेरे पास कोई जवाब नहीं है। मेरे पास कोई सवाल नहीं हैं।
तुम्हारे पास फिर क्या है?
भूख!
मेरा सिर घूमने लगा था। क्या मैं पागल हो रहा हूँ? मैंने आँखें मली। वो अभी भी सामने बैठे थे। उनकी छाया और पेड़ की छाया एक थी। उन्होने छाया से एक लाठी बनाई और उठ खड़े हुए।
आप जा रहे हैं?
हाँ।
कहाँ?
आगे की ओर।
आगे क्या है?
पीछे जो था।
पीछे... वो फिर हँस पड़े और चल पड़े। मैं चाहता था उनका पीछा करूँ। लेकिन मुझे अंदर कहीं पता था कि मेरा उनसे वास्ता यहीं तक था। वो अंधेरे में चले जा रहे थे। छाया के भीतर छाया। वो पलटेंगे। ऐसी आशा थी। वो नहीं पलटे। फू... मेरे मुँह से फूटा। और मैं वापस बिस्तर की तरफ चलने लगा। पराया बिस्तर... कोई नहीं जाग रहा था। सब खुश था। मैं बिस्तर पर पड़ते ही जैसे निढाल सा पड़ गया। जब जागा तब लगा असल में सोते हुए भी जाग ही रहा था। वो सब मेरे चारों ओर खड़े थे। सुंदर चहरे वाले कबीले के लोग। वो आपस में बात कर रहे थे। एक औरत जो मेरी माँ की उम्र की थी उन्होने माथे पर हाथ रखा और फिर खाने को कुछ दिया। मैं हँस रहा था। मैं मुक्त था। मेरे जाने में एक दिन बचा था।
मुझे कोने अब भी दिखते थे। आखिरी दिन तक कोई जवाब नहीं। मैंने उन बच्चों से कहा कि चलो एक बार पेड़ की तरफ चलते हैं। हम चल पड़े। वो कोई खेल खेलते चल रहे थे। मैंने देखा हमारी जड़ें एक दूसरे से जुड़ी हैं। गोल में। कहीं कोई कोना नहीं। इसका फोटो? आँखों के भीतर गोल दिख रहा था। मुझे असल में जानना था कि बूढ़ा है कि नहीं। पेड़ के नीचे कुछ नहीं था। बच्चे ठहर गए। तुरंत वापस कबीले की तरफ एक भागा। जो बचे थे वो जहां बूढ़ा था वहाँ की मिट्टी के नीचे से कुछ फूल निकाल रहे थे। सफ़ेद फूल... वही फूल जो मैंने खाये थे। जब तक कबीले के सब लोग आ नहीं गए, वो बच्चे खोदते रहे। लोगों के आने पर मैं किनारे हो गया। देखा मेरी छाया से निकली एक जड़ उस पेड़ की छाया से मिल रही थी।
उन्होने उन फूलों को ठीक वैसे इकट्ठा किया जैसे कि बूढ़ा बैठा था। और फिर गाने लगे। और फिर रोने। मैं उनका फोटो खींचना चाहता था। पर मैं रो रहा था। सब कुछ के बाद मैं रो रहा था। कोना कहीं नहीं था। मेरी माँ जैसी औरत और मेरे पिता जैसे आदमी ने मेरी गर्दन पर हाथ रखा और मुझे घेरे के भीतर खींच लिया। हमारे आँसू से वो फूल खिलने लगे थे। हमारी छाया की प्यास मिट रही थी। प्यास। मुझे बहुत प्यास थी। जब फूल खिल गए। हम वहीं बैठ गए।
सब वो फूल बीनकर खाने लगे। वो कहानी सुना रहे थे। बूढ़े की। मेरी बारी आई और मैंने बूढ़े के जाने की कहानी कही। जो उस रात मैंने देखा। बूढ़े से अपनी बातचीत कही। वो सुन रहे थे। जैसे कि मुझे समझ रहे हों। मैंने कहानी जारी रखी। मैंने उनसे बच्ची के बारे में कहा। दादा के बारे में कहा। अपने पिता के बारे में कहा जो अब मुझसे बात नहीं करते। मेरी माँ के बारे में कहा जो कहाँ चली गयी एक दिन मुझे नहीं पता। मैंने अपने जले कटे जीवन के बारे में कहा। अपने पेड़ के बारे में कहा जिसे मैं दिन रात काटने के बारे में सोचता हूँ। मैंने अपने धोखे के बारे में कहा। जैसे कि मैं अभी उन लोगों को बूढ़े की कहानी कहकर अपने जीवन के बारे में बता रहा था और वो सुन रहे थे। कहते कहते मैं जैसे जमीन पर भ्रूण की मुद्रा में लेट गया। मैं जमीन खुरचते हुए अपने सवालों के बारे में कहने लगा। मैं रो रहा था और एक नदी बन रही थी। मैं हँस रहा था। मैं जमीन पीट रहा था। मैं बूढ़े को वापस चाहता था। मैंने उस विलाप के बारे में कहा कि मेरा एक मन बूढ़े के पीछे जाने को था लेकिन मैं नहीं गया। मैंने अपनी भाषा की कमी के बारे में कहा और जमीन पर लेट गया। बूढ़े की झुर्रियों जैसी जमीन। वो सब लेट गए। हमारे सिर आपस में जुड़े थे। हम सब रो रहे थे। मैंने देखा हमारा कोई कोना नहीं था। हम सुबह तक वहीं रहे। जाने कितनी सुबहों तक वहीं रहे। मैं बूढ़ा हो गया। मैं वहीं बूढ़े की छाया में लेट गया। जब मेरी आँखें खुली तो बूढ़ा सामने था और उसने अपनी छाया की लाठी मुझे दी और मैं उनके पीछे चल पड़ा।
अगले दिन गाइड आ गया और मैं वापस आ गया। मेरे पास बस एक तस्वीर है। जिसमें उस पेड़ की छाया तले हम सब जमीन पर लेटे हैं। दादा कहते हैं कि ये तो फूलों की फोटो है जो एक इंसान की आकृति में रखी है। मैं उनको बहुत डीटेल में बताता हूँ कि ये मैं और कबीले वाले हैं। वो पूरी बात सुनते हैं। और फिर उसे लेकर चले जाते हैं। उन्होने कभी नहीं पूछा और मैंने भी नहीं पूछा कि वो फोटो कब ली? मैं अब सोता नहीं हूँ। लगातार बूढ़े की आँखों को खोजता रहता हूँ।
इस बार जब एक्सिबिशन लगा तो मेरे सारे फोटो कोने में रखे फूलों के थे। वो बच्ची सामने थी। मैं सामने था। वो चुप उसे देखते रही और चली गयी। मैं भी।
'मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए हर 'उसकी' सेवा करता। - विपिन कुमार अग्रवाल
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Srivats_1811 on 12 May 2024
intriguing 👀